मुझे पता है कई बार लोगो को,
खटकने लगती है,
मेरे द्वारा दी गई प्रेम की परिभाषाएं...
उन्हे लगता है कि,
मैं मात्र एहसासों को पिरोकर,
बातें लिख लेता हूं,
एहसासों को अल्फ़ाज़ देकर,
नए नए किस्से बुन लेता हूं...
तो सुनिए ....
ऐसा बिल्कुल नही है,
कुछ लिखने के लिए,
बस ख्याली पुलाव से काम नहीं चलता,
उन शब्दों को जीवन में उतारना भी पड़ता है,
उन्हे जीना भी पड़ता है,
तभी तो हम सही रूप से, सही ढंग से,
उन्हे कागज़ पर उकेर पाते हैं,
तभी तो झलकती हैं उन शब्दों से,
प्रेम की सार्थकता, प्रेम का स्वरूप,
मैंने जो महसूस किया,
मैं जिस तरह अपने प्रेम को जीता हूं,
बस वही लिखता हूं...!!!
दुनिया में प्रेम तो सभी करते हैं लगभग,
मगर अलग है सबके प्रेम करने का ढंग,
अलग है प्रेम को समझने का ढंग,
कुछ लोग दिखाते हैं कि मैं प्रेम में हूं,
मैने प्रेम किया,
मैं प्रेम में ऐसा कर सकता हूं वैसा कर सकता हूं,
मगर प्रेम ने कभी प्रमाण मांगा है?
कोई दिखावा चाहा है?
बिल्कुल नही....
प्रेम तो बस ठहर जाता है धड़कनों के बीच कहीं,
धीमा धीमा एहसासों का एक,
मीठा सा स्रोत,
खूबसूरत सा झरना,
जो बस महसूस करने मात्र से,
खिल जाता हैं दिल का हर एक कोना,
प्रेम की परिभाषा लिखना तो,
किसी के बस का कभी रहा ही नहीं,
मैं तो बस प्रेम में जिए अपने एहसासों को लिखता हूं...
ईश्वर की आराधना जैसा मेरा प्रेम,
दिखावा नहीं ,
बस आंखे बंद करके उसे स्मरण करना,
उसे महसूस करना, उसे पा लेना
हां थोड़ा मुश्किल हैं, उस प्रेम को जीना,
जो आपके निकट नहीं, जिससे मिलना संभव नहीं,
मगर उसका आपके जीवन में होना ही,
आपको जब जी भर कर संतुष्टि दे तो फिर,
कोई शिकायत कैसी.....
मिलते तो ईश्वर भी नही ,
न साक्षात दर्शन होते हैं कभी,
मगर क्या उनके प्रति आस्था, प्रेम कभी कम होता है,
कभी लगता है कि वो धोखेबाज हैं नही न....
वो हैं ये हम दिल से महसूस करते हैं ,
हमारा रोम रोम इस बात की गवाही देता है कि,
ईश्वर हैं... ईश्वर हैं...
बस कुछ ऐसा ही है मेरा भी प्रेम...
ख़ैर...
(आप भी तो कहें अपने प्रेम के बारे में)
खटकने लगती है,
मेरे द्वारा दी गई प्रेम की परिभाषाएं...
उन्हे लगता है कि,
मैं मात्र एहसासों को पिरोकर,
बातें लिख लेता हूं,
एहसासों को अल्फ़ाज़ देकर,
नए नए किस्से बुन लेता हूं...
तो सुनिए ....
ऐसा बिल्कुल नही है,
कुछ लिखने के लिए,
बस ख्याली पुलाव से काम नहीं चलता,
उन शब्दों को जीवन में उतारना भी पड़ता है,
उन्हे जीना भी पड़ता है,
तभी तो हम सही रूप से, सही ढंग से,
उन्हे कागज़ पर उकेर पाते हैं,
तभी तो झलकती हैं उन शब्दों से,
प्रेम की सार्थकता, प्रेम का स्वरूप,
मैंने जो महसूस किया,
मैं जिस तरह अपने प्रेम को जीता हूं,
बस वही लिखता हूं...!!!
दुनिया में प्रेम तो सभी करते हैं लगभग,
मगर अलग है सबके प्रेम करने का ढंग,
अलग है प्रेम को समझने का ढंग,
कुछ लोग दिखाते हैं कि मैं प्रेम में हूं,
मैने प्रेम किया,
मैं प्रेम में ऐसा कर सकता हूं वैसा कर सकता हूं,
मगर प्रेम ने कभी प्रमाण मांगा है?
कोई दिखावा चाहा है?
बिल्कुल नही....
प्रेम तो बस ठहर जाता है धड़कनों के बीच कहीं,
धीमा धीमा एहसासों का एक,
मीठा सा स्रोत,
खूबसूरत सा झरना,
जो बस महसूस करने मात्र से,
खिल जाता हैं दिल का हर एक कोना,
प्रेम की परिभाषा लिखना तो,
किसी के बस का कभी रहा ही नहीं,
मैं तो बस प्रेम में जिए अपने एहसासों को लिखता हूं...
ईश्वर की आराधना जैसा मेरा प्रेम,
दिखावा नहीं ,
बस आंखे बंद करके उसे स्मरण करना,
उसे महसूस करना, उसे पा लेना

हां थोड़ा मुश्किल हैं, उस प्रेम को जीना,
जो आपके निकट नहीं, जिससे मिलना संभव नहीं,
मगर उसका आपके जीवन में होना ही,
आपको जब जी भर कर संतुष्टि दे तो फिर,
कोई शिकायत कैसी.....

मिलते तो ईश्वर भी नही ,
न साक्षात दर्शन होते हैं कभी,
मगर क्या उनके प्रति आस्था, प्रेम कभी कम होता है,
कभी लगता है कि वो धोखेबाज हैं नही न....
वो हैं ये हम दिल से महसूस करते हैं ,
हमारा रोम रोम इस बात की गवाही देता है कि,
ईश्वर हैं... ईश्वर हैं...
बस कुछ ऐसा ही है मेरा भी प्रेम...

ख़ैर...
(आप भी तो कहें अपने प्रेम के बारे में)