एक सवाल था मेरा तुमसे... तुम साथ मेरा निभा पाओगे क्या? ख्वाहिश केवल जरा सी है, पूरी उसे तुम कर पाओगे क्या? है लगती मुझे प्यारी हर शाम, इस ढलते सूरज की तरह तुम मुझे अपना बना पाओगे क्या? बता नहीं पाऊँगी जब खुद से में, तब आँखें मेरी पढ़ कर हाल मेरी जान पाओगे क्या? पसंद है मुझे रोज चाँद को निहारना थोड़ा वक्त निकल कर, तुम साथ मेरे बैठ पाओगे क्या? जो टूटा अगर दिल कभी मेरे गले मुझे लगाकर उसे भी तुम जोड़ पाओगे क्या? और चाहिए नहीं मुझे कुछ ज्यादा बस इतना कि तुम मुझे समझ पाओगे क्या? इस बदलते हुए दौर में आखिर पूरी जिंदगी के साथ मेरे गुजर पाओगे क्या????




